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Friday, October 5, 2012

...पर तुम चली गयी

उस दिन जब मैं रूठ गया था,
मैं रुक गया था,
आज भी रुका हूँ,
एक छोटे से स्टेशन की तरह,
सोचा था,
तुम आओगी,
मनाओगी,
और मैं मान जाऊंगा,
और तुम आई भी थी,
पर तुम चली गयी.

कैसे रोकता,
कैसे रूकती,
राजधानी थी तुम,
और, मैं एक छोटा सा स्टेशन.

आंधी सी आ रही थी तुम,
क्या करता, कुछ भी तो नहीं था मेरे पास,
पटरियों पर बिछा दी, यादें,
उस दुर्घटना की,
जब तुम रुकी थीं,
इस छोटे से हाल्ट पर,
सोचा सायद तुम्हे दिख जाये,
और तुम......
पर तुम चली गयी.

कैसे रूकती,
कैसे रोकता,
राजधानी थी तुम,
और, मैं एक छोटा सा स्टेशन.

फटा नोट...

जानता हूँ उसे,
सहेज के रखेगा ,
वो मुझे फेंक नहीं पायेगा ,
पर मैं खर्च भी नहीं हो सकती ,
क्योंकि,
उसके बटुए में पड़ा,
मैं सबसे बड़ा, नोट हूँ,
पर फटा हुआ

सुनो......

बहुत बोलता हूँ,
क्योकि उसे पसंद है,
सुनना नहीं,
बहुत बोलने वाले लोग,
पर इस कहने-सुनने के शोरगुल में,
अकसर,
चुप ही पाया जाता हूँ मैं,
या,
चुप करा देता है,
उसका, 'कीमती हेडफोन',
और,
मै बोल नहीं पाता।