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Friday, October 5, 2012

...पर तुम चली गयी

उस दिन जब मैं रूठ गया था,
मैं रुक गया था,
आज भी रुका हूँ,
एक छोटे से स्टेशन की तरह,
सोचा था,
तुम आओगी,
मनाओगी,
और मैं मान जाऊंगा,
और तुम आई भी थी,
पर तुम चली गयी.

कैसे रोकता,
कैसे रूकती,
राजधानी थी तुम,
और, मैं एक छोटा सा स्टेशन.

आंधी सी आ रही थी तुम,
क्या करता, कुछ भी तो नहीं था मेरे पास,
पटरियों पर बिछा दी, यादें,
उस दुर्घटना की,
जब तुम रुकी थीं,
इस छोटे से हाल्ट पर,
सोचा सायद तुम्हे दिख जाये,
और तुम......
पर तुम चली गयी.

कैसे रूकती,
कैसे रोकता,
राजधानी थी तुम,
और, मैं एक छोटा सा स्टेशन.

फटा नोट...

जानता हूँ उसे,
सहेज के रखेगा ,
वो मुझे फेंक नहीं पायेगा ,
पर मैं खर्च भी नहीं हो सकती ,
क्योंकि,
उसके बटुए में पड़ा,
मैं सबसे बड़ा, नोट हूँ,
पर फटा हुआ

सुनो......

बहुत बोलता हूँ,
क्योकि उसे पसंद है,
सुनना नहीं,
बहुत बोलने वाले लोग,
पर इस कहने-सुनने के शोरगुल में,
अकसर,
चुप ही पाया जाता हूँ मैं,
या,
चुप करा देता है,
उसका, 'कीमती हेडफोन',
और,
मै बोल नहीं पाता।

Saturday, July 3, 2010

एक इ-मेल

पिछले दिनों तुम्हे एक मेल किया था,
आज फिर कर रही  हूँ,
पिछले मेल का जवाब नहीं आया,
रोज एक आस के साथ,
मेल देखती थी ,
की तुम्हारा जवाब होगा,
'इन्बोक्स' खुलते ही उम्मीद ढह जाती थी,
एहसास वही होता जैसे प्रेम के
तूफान के शांत होने पर होता है,
पर शायद इस 'लॉग इन' से,
'इन्बोक्स' के खुलने के सफ़र में,
इस प्रेम के चरम तक पहुचने के पहले के, 'फॉर प्ले' में,
मजा आने लगा है,
इन दस दिनों में जवाब की उम्मीद जा रही थी,
इसलिए आज फिर मेल कर रही हूँ,
तुम्हारा जवाब नहीं, जवाब की,
आश को पाने के लिए.................

Saturday, April 3, 2010

मत आओ तुम

तुम्हारा नहीं आना,
सालता रहा,
तुम्हारे आने की खबर से,
एक द्वन्द है,
आज आओगी,
तुमने नहीं बताया,
कोई बता रहा था,
आज सीढियां चढ़ते हुए,
मना रहा हूँ मैं,
काश! तुम न आओ,
क्यूंकि,
तुम्हारी कुर्सी के खालीपन में,
तुम्हारे न होने में,
लगता है की कुछ है,
कोई मेरा है,
जो यहाँ नहीं है,
तुम्हारे आने से,
मेरा भ्रम टूट जायेगा...

Friday, April 2, 2010

मौन यात्रा ( on the death of Kanu Sanyal)

भूख से रुसन चिराग
भुझा नहीं आंधियों में
हमराही बदलते गए, बीछ्रते गए, भटकते गए,
वो चलता गया,
अडिग, अथक,
पर थका जब समेत अपना सामान,
यूँ वो साढ़े मौन गया,
कोई न जान पाया ,
कौन था अवि, आज कौन गया ....

Wednesday, March 31, 2010

काश तुम.......

सर्द  हवा ने पत्तों को चूमा जब ,
हुई  ऐसी सनसनाहट
कान गुदगुदा उठे लगा जैसे
हो तुम्हारी आहट।
ये ठंडी हवा कुछ गुनगुनायी
फीर  हमसे यूँ टकराई वो ,
लगा जैसे तुम्हारी गीली जुल्फों
को चुकार आई हो
इन बहती हवाओं में
खुसबू उमर रही थी ऐसे
वो खुसबू में डूबा कोई ख़त,
पढ़ रही हो जैसे।
तभी बरस परा आसमान
मेरी आँखों के जैसा
कुचला गया वो समां
मेरी जसज्बतों के जैसा
याद आई वो जगती रातें
गुजारी थी हमने जो रो रो के
दील  से आह निकली अचानक
की काश  तुम बेवफा न होते .....